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"My art is my search for the moments beyond the ones of self knowledge. It is the rhythmic fantasy; a restless streak which looks for its own fulfillment! A stillness that moves within! An intense search for my origin and ultimate identity". - Meena

Meena Chopra - Poetry and Art

Sunday, 11 September 2011

उन्मुक्त

कलम ने उठकर
चुपके से कोरे कागज़ से कुछ कहा
और मैं स्याही बनकर बह चली
           मधुर स्वछ्न्द गीत गुनगुनाती,
                     उड़ते पत्तों की नसों में लहलहाती।
उल्लसित जोशीले से
ये चल पड़े हवाओं पर
अपनी कहानियाँ लिखने।
           सितारों की धूल
                      इन्हें सहलाती रही।
कलम मन ही मन
             मुस्कुराती रही
                       गीत गाती रही।
-मीना चोपड़ा 

7 comments:

उन्मुक्त said...

अच्छी कवितायें हैं।

कृपया वर्ड वेरीफिकेशन हटा लें। यह न केवल मेरी उम्र के लोगों को तंग करता है पर लोगों को टिप्पणी करने से भी हतोत्साहित करता है। आप चाहें तो इसकी जगह कमेंट मॉडरेशन का विकल्प ले लें।

Unknown said...
This comment has been removed by a blog administrator.
mridula pradhan said...

behad sunder..मन की सीप में उतरें
और मोती हो जाएँ।

mridula pradhan said...

कलम ने उठकर
चुपके से कोरे कागज़ से कुछ कहा
और मैं स्याही बनकर बह चली
behad achchi lagi.

yogendra kumar purohit said...

nice poem.. its sound of poetry freedom by your inner poetry sound..thanks..

Kalimullah said...

चुपके से कोरे कागज़ से कुछ कहा
और मैं स्याही बनकर बह चली
बोहोत सुन्दर Meena पूरी शाइरी लाजवाब हॆ
ऎसे ही ग़ालिब ने भी कहा था
आते हॆं ग़ॆब से ये मज़ामीन ख़याल में
ग़ालिब सरीर ख़ामे नवाए सरोश हॆ

daanish said...

और मैं स्याही बनकर बह चली
मधुर स्वछ्न्द गीत गुनगुनाती,
उड़ते पत्तों की नसों में लहलहाती।

मन की भावनाओं को
शब्द दे पाने की कठिन प्रक्रिया को
बहुत ही सहज काव्य रूप दिया आपने ....
स्वयं ही गुनगुनाती हुई
खूबसूरत नज़्म ...
मुबारकबाद .

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