जीवन ने उठा दिया
चेहरे से अपने
शीत का वह ठिठुरता नकाब
फिर उसी गहरी धूप में
वही जलता सा शबाब
सूरज की गर्म साँसों में
उछलता है आज फिर से
छलकते जीवन का
उमड़ता हुआ रुआब
इन बहकते प्रतिबिम्बों के बीच
कहीं यह ज़िंदगी के आयने की
मचलती मृगतृष्णा तो नहीं?
किनारों को समेटे जीवन में अपने
कहीं यह मुट्ठी भर आरज़ू तो नहीं?
1 comment:
कहीं यह मुट्ठी भर आरज़ू तो नहीं?
wah. very good.
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