Drawing by Meena chopra |
सिलेटी शाम के
ढलते रंग
निःशब्द, निशाचरी, निरी रात
उदासीन, तठस्थ सफेद चेहरे
अपरिचित नाम
अनजान शब्द
खड़े थे रूबरू हमारे।
क्या था वह —?
शायद कोई अनुनाद —?
जिसे तुम छू भर कर निकल गए
और मैं देख भी न पाई।
कोलाहल की धूल से भरी
इन आँखों में
केवल थी तो कालिख ही
शोर की धुन्ध हमें टिकटिकी लगाये
लगातार देखती थी |
शायद एक शुरूआत के छोर पर
खड़े होकर हम
दूर किसी अंत को समेटते हुए
फिर एक बार
एक नई आस के करीब
बना रहे थे
एक नया सा नसीब।
(Transcreated from Greying Evening
-Earlier published in "Ignited Lines")
(Transcreated from Greying Evening
-Earlier published in "Ignited Lines")
2 comments:
शायद एक शुरूआत के छोर पर
खड़े होकर हम
दूर किसी अंत को समेटते हुए
फिर एक बार
एक नई आस के करीब
बना रहे थे
एक नया सा नसीब।wah.kitna sunder likhi hain aap.
आदरणीया मीना चौपड़ा जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
शायद पहली बार पहुंचा हूं आपके यहां , अच्छा लगा ।
प्रस्तुत रचना प्रभावशाली है -
क्या था वह ?
शायद कोई अनुनाद …
जिसे तुम छू भर कर निकल गए
और मैं देख भी न पाई ।
कोलाहल की धूल से भरी
इन आंखों में
केवल थी तो कालिख ही …
बहुत ख़ूब !
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
Post a Comment