VISUAL ARTS, POETRY, COMMUNITY ARTS, MEDIA & ADVERTISING
"My art is my search for the moments beyond the ones of self knowledge. It is the rhythmic fantasy; a restless streak which looks for its own fulfillment! A stillness that moves within! An intense search for my origin and ultimate identity". - Meena
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Friday 2 September 2011
Tuesday 30 August 2011
Friday 26 August 2011
Thursday 25 August 2011
Wednesday 24 August 2011
Tuesday 23 August 2011
Monday 22 August 2011
Wednesday 20 July 2011
एक रिश्ता
Drawing on paper by Meena |
लय और प्रलय के बीच की
दूरियों को नापता
साज़िश में वक्त की लिपटा
जल से सघन बादलों के भरा-भरा
चमकती बिजलियों में उलझकर
काँपता रहा एक रिश्ता।
बादलों से टपकता
धुन्ध में लटकता
बचता – बचाता
आ गिरा छिटक के
ज़मीं की गोद में
टूट के कहीं से
एक रिश्ता यूँही
भटकता– भटकता |
मौन हो गई है
ज़मीं मेरी
सूँघ के साँप रह गई है
जल-जल के धुआँ हो चुकी है
गति को अपनी ढूँढती है !
Tuesday 19 July 2011
तीर्थ, Teerth
Pastel on Paper by Meena |
सौंधी हवा का झोंका
मेरे आँचल में
मेरे आँचल में
फिसल कर आ गिरा।
वक्त का एक मोहरा हो गया।
और फिर
फ़िज़ाओं की चादर पर बैठा
हवाओं को चूमता
आसमानों की सरहदों में कहीं
वक्त का एक मोहरा हो गया।
और फिर
फ़िज़ाओं की चादर पर बैठा
हवाओं को चूमता
आसमानों की सरहदों में कहीं
जा के थम गया।
एहसास को एक नई खोज मिल गयी।
एक नया वजूद
एहसास को एक नई खोज मिल गयी।
एक नया वजूद
मेरी देह से गुज़र गया।
आसक्ति से अनासक्ति तक की दौड़,
भोग से अभोग तक की चाह,
जीवन से मृत्यु तक की
भोग से अभोग तक की चाह,
जीवन से मृत्यु तक की
प्रवाह रेखा के बीच की
दूरियों को तय करती हुई मैं
इस खोने और पाने की होड़ को
अपने में विसर्जित करती गई।
दूरियों को तय करती हुई मैं
इस खोने और पाने की होड़ को
अपने में विसर्जित करती गई।
न जाने वह चलते हुए
कौन से कदम थे
जो ज़मीन की उजड़ी कोख में
हवा के झोंके को पनाह देते रहे।
इन्हीं हवाओं के घुँघरुओं को
अपने कदमों में पहन कर
मैं जीवन रेखा की सतह पर
चलती रही — चलती रही —
कभी बुझती रही
जो ज़मीन की उजड़ी कोख में
हवा के झोंके को पनाह देते रहे।
इन्हीं हवाओं के घुँघरुओं को
अपने कदमों में पहन कर
मैं जीवन रेखा की सतह पर
चलती रही — चलती रही —
कभी बुझती रही
कभी जलती रही।
sau.ndhii hawaa kaa jho.nkaa
mere aa.nchal me.n
phisal kar aa giraa!
waqt kaa ek muharaa ho gayaa
aur phir
fizaao.n kii chaadar par baiThaa
hawaao.n ko chuumataa
aasmaano.n kii sarahado.n me.n kahii.n
jaa ke tham gayaa।
ehasaas ko ek naii khoj mil gayii.
ek nayaa wajood
merii deh se guzar gayaa।
aaskti se anaasakti tak kii dau.D,
bhog se abhog tak kii chah,
jiivan se mrityu tak kii
prawaha rekhaa ke biich kii
duuriyo.n ko tay kartii huii mai.n
Sunday 22 May 2011
माणिक - White Canvas
चित्र - मीना द्वारा निर्मित Drawing by Meena |
सपनों के सपाट कैनवास पर
रेखाएँ खींचता
असीम स्पर्श तुम्हारा
कभी झिंझोड़ता
कभी थपथपाता
कुछ खाँचे बनाता
आँकता हुआ चिन्हों को
रंगों से तरंगों को भिगोता रहा
एक रात का एक मख़मली एहसास।
कच्ची पक्की उम्मीदों में बँधा
सतरंगी सा उमड़ता आवेग
एक छलकता, प्रवाहित इंद्रधनुष
झलकता रहा गली-कूचों में
बिखरी सियाह परछाइयों
के बीच कहीं दबा दबा।
रात रोशन थी
श्वेत चाँदनी सो रही थी मुझमें
निष्कलंक!
अँधेरों की मुट्ठी में बंद
जैसे माणिक हो सर्प के
फन से उतरा हुआ।
सुबह का झुटपुटा
झुकती निगाहों में
बहती मीठी धूप
थम गया दर्पण दिन का
अपने अक़्स में गुम होता हुआ।
और तब
थका-हारा, भुजंग सा
दिन का यह सरसराता धुँधलका
सरकता रहा परछाइयों में प्रहर - प्रहर।
नींद में डूबी अधखुली आँखों के बीच
फासलों को निभाता यूँ दरबदर
साथ चलता रहा मेरे
एकटक आठों प्रहर।
(भावार्थ "वाईट कैनवास"
संकलन "सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है" में प्रकाशित)
White Canvas
Your vivid stroke
etched in my memory
bestirred my stark white canvas.
A passing night clasped me
replete with colours.
Raw impulses wide awake
splashed shades
tinting the sheet
toning the moods.
A splendor bedded
with me all night.
A river
oozed out in heat.
My opaque vision.
grasped the forthcoming dawn.
A fatigue
tarried within me
throughout the day.
(from collection"Ignited Lines")
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