फ़ासलों की एक लम्बी सड़क
उम्र भर पहचानों के जंगलों से निकल
ज़मीन की तह से गुज़रती है |
पसीनों से लथपथ
पैरों के निशान
बनते चले जातें हैं
हवाओं की सलीब पर
चढ़ते चले जाते हैं
गाढ़ते जातें हैं
कोई त्रिशूल या कोई खंडा
या फ़िर,
सूली पर चढ़े उस शख्स के
खून से भीगा चाँद तारे का
अम्बर के गुनाहों में
एक रिसता रिश्ता।
लहराता है,
दिशाओं को थामें
चूमता हवाओं को
बस वही एक अलम-
एक ही परचम!
कई जन्मों के टूटे बिखरे शहर
बस जातें हैं इसमें
साथ लिए कुछ पंख परिंदों के
और पेड़ों से टूटे पत्तों के
चुकते करम!
पतझड़ का आगोश घबरा कर
और भी बड़ा हो जाता है,
जहाँ सदियों की धूल में लिपटे यही पत्ते
सरगोशियों में उड़ा करतें हैं|
धूप की मद्धम किरणें
जड़ देतीं हैं खामोशियाँ
इनके तन पर|
बांवाली पतझड़,
झूमती है पहनकर
मिट्टी की बेपनाह
तपिश के कई रंग
उलझकर इन महकते उड़ते रंगों में
इतराती है,
बलखाती है
जैसे नाच उठे
बेफिक्र, बेपरवाह सा
कोई मस्त मलंग|
फ़िर थक हार कर
गिर जाती है ज़मीन पर
इस छल भरे नृत्य की
झीनी चूनर
कुछ रंग भरे आलम
एक पथराई सी सहर|
शीत की वही कड़वी ठण्ड
जिसके आगास का घूँट पीकर
सो चुके थे हम
तनहाइयों में बंद।
एक बार फ़िर
छिटक जाता है कहीं दूर
पिछले चाँद का वही नूर
भर-भर के उडेल देता है कोई
रजातिम, रूपहला अबीर
बर्फीले ठंडे सीनों में भरी
दास्तानों के करीब।
चमक उठता है
बर्फ पर सोता
सन्नाटों का बेचाप रूआब
कौंधते खवाबो की हकीकत
खनखनाते चेहरों का शबाब
रात की हूर
इस दुशाले को ओढे
निकल पड़ती है
अपलक
सन्नाटों भरी बेनूर दूरियों की
अकेली पगडंडियों पर
सकपकाती,
खंडहरों से गुज़रती है
लांघती है,
बचपन की दहलीज़
टोहती है
किसी सूफियानी सुबह का
बूँद-बूँद पिघलता
साफ़ सुथरा स्वर्णिम सिन्दूर
मांग की सफेदी को भरता
एक चंपई नूर!
और तब,
टिमटिमाते किनारों पर खड़ा
अतीत में दम भरता
परखती आंखों से
वक्त को एक -टक निहारता
अय्यामों में गुम हो जाता है
एक पारदर्शी दॄश्य!
रुक जातें हैं
रुन्धते गलों के सुरों को टटोलते
निष्कंठ शब्दों में फसते हलंत !
लेकिन
इस मौन होती हुई कायनात से
छलकते छंदों के बीच
कौन बैठा था बिछाए पलकें?
ढूँढ रहा है अब भी -
बहते रहने की इस होड़ में
साँसों के सही हुलिए
कोई ठोस शिनाख्त
नियमों में बंद नामदार कोई
ध्वजों में अंकित उदाहरण देता
गुमनाम अलमस्त ही सही।
बस वही पलक झपकाता सिलसिला
अपने नसीब से टूटा
बस वही टूटी साँसों में
भटकती सच्चाई
छोर को छोर से बांधती
स्वछन्द हर छोर को लांघती
निरी सच्चाई!
टिमटिमाते किनारों पर बैठा
बस वही,
एक ही सिलसिला
कभी फ़िज़ाओं में बहता
कभी घूमता पगडंडियों पर और
खंडहरों के बीच से गुज़र
झील के किनारों पर ठहरता
कभी सूलियों पर चढ़ता
कभी हवाओं में
बंद निशानों से गिरता
धुंधले से नसीब के दौर का
बस वही,
एक ही सिलसिला।
-मीना चोपड़ा
-मीना चोपड़ा
3 comments:
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छोर को छोर से बांधती
स्वछन्द हर छोर को लांघती
निरी सच्चाई!
टिमटिमाते किनारों पर बैठा
बस वही,
एक ही सिलसिला wah......adbhud.....
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