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"My art is my search for the moments beyond the ones of self knowledge. It is the rhythmic fantasy; a restless streak which looks for its own fulfillment! A stillness that moves within! An intense search for my origin and ultimate identity". - Meena
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Tuesday 19 April 2011
थिरकन
प्रकृति की लय पर
विचलित शब्दों ने
संवेदनाओं को प्रेरित किया,
नज़र में उट्ठे पानी की तरंगों में
भिगो दिया!
विचलित शब्दों ने
संवेदनाओं को प्रेरित किया,
नज़र में उट्ठे पानी की तरंगों में
भिगो दिया!
कई नए प्रतिबिम्ब उभरे
कई कहानियाँ भी-
कई कहानियाँ भी-
रूह का इस तरह से
पतझड़ के उड़ते सूखे पत्तों पर
एक नया नृत्य
और हवाओं पर थिरक-थिरक चलना —
पतझड़ के उड़ते सूखे पत्तों पर
एक नया नृत्य
और हवाओं पर थिरक-थिरक चलना —
जीवन का यह कलरव
कुछ अधूरा सा नहीं है क्या?
कुछ अधूरा सा नहीं है क्या?
(कविता संकलन "सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है!")
Monday 11 April 2011
कविता कोश - मीना चोपड़ा
अमावस को
in reference to:
in reference to:
"अमावस को / मीना चोपड़ा उन्मुक्त / मीना चोपड़ा ओस की एक बूँद / मीना चोपड़ा और एक अंतिम रचना! / मीना चोपड़ा और कुछ भी नहीं / मीना चोपड़ा कविता / मीना चोपड़ा कुछ निशान वक़्त के / मीना चोपड़ा जीवन गाथा / मीना चोपड़ा धुआँ / मीना चोपड़ा सर्द सन्नाटा / मीना चोपड़ा स्पर्श / मीना चोपड़ा"
- मीना चोपड़ा - Kavita Kosh (view on Google Sidewiki)
मीना चोपड़ा की तीन कविताएं
दुशाला
in reference to:
in reference to:
"दुशाला अँधेरों का दुशाला मिट्टी को मेरी ओढ़े"
- गवाक्ष: September 2010 (view on Google Sidewiki)
अनुभूति में मीना चोपड़ा की कविताएँ
मुट्ठी भर वक़्त
कुछ पंख यादों के
बटोर कर बाँध लिए थे
रात की चादर में मैंने।
in reference to:
कुछ पंख यादों के
बटोर कर बाँध लिए थे
रात की चादर में मैंने।
in reference to:
"मुट्ठी भर -"
- मीना चोपड़ा की रचना (view on Google Sidewiki)
मुट्ठी भर आरज़ू
जीवन ने उठा दिया
चेहरे से अपने
शीत का वह ठिठुरता नकाब
फिर उसी गहरी धूप में
वही जलता सा शबाब
सूरज की गर्म साँसों में
उछलता है आज फिर से
छलकते जीवन का
उमड़ता हुआ रुआब
इन बहकते प्रतिबिम्बों के बीच
कहीं यह ज़िंदगी के आयने की
मचलती मृगतृष्णा तो नहीं?
किनारों को समेटे जीवन में अपने
कहीं यह मुट्ठी भर आरज़ू तो नहीं?
Saturday 2 April 2011
कविता - Kavita
Waqt kee siyahee main
Tumharee roshanee ko bharkar
Samay kee nok per rakkhe
shabdon kaa kagaz per
Kadam kadam chalanaa
ek naiye wajood ko
meri kokh mein rakhkar
Mahir hai kitna
Is kalam kaa
Meri ungaliyon se milkar
Tumhaare saath-saath
Yun sulag sulag chalana
वक्त की सियाही में
तुम्हारी रोशनी को भरकर
समय की नोक पर रक्खे
शब्दों का कागज़ पर
कदम-कदम चलना।
एक नए वज़ूद को
मेरी कोख में रखकर
माहिर है कितना
इस कलम का
मेरी उँगलियों से मिलकर
तुम्हारे साथ-साथ
यूँ सुलग सुलग चलना
तुम्हारी रोशनी को भरकर
समय की नोक पर रक्खे
शब्दों का कागज़ पर
कदम-कदम चलना।
एक नए वज़ूद को
मेरी कोख में रखकर
माहिर है कितना
इस कलम का
मेरी उँगलियों से मिलकर
तुम्हारे साथ-साथ
यूँ सुलग सुलग चलना
- मीना चोपड़ा
Saturday 12 March 2011
दुशाला
अंधेरों का दुशाला
मिट्टी को मेरी ओढ़े
अपनी सिलवटों के बीच
खुद ही सिमटता चला गया
और कुछ झलकती
परछाइयों की सरसराहट,
सरकती हुई
इन सिलवटों में
गुम होती चली गयी,
मेरी नज़रों में सोई हुई
सुबह के कुछ आंसू
आँखों के किनारों से छलक पड़े|
देखो तो सही!
पूरब की पेशानी से उगती
मखमली रोशनी के उस टुकड़े ने
हरियाली के हसीन चेहरे पर
यह कैसी शबनम बिखेर दी है?
शाम के वक़्त
जो शाम के प्याले में भरकर
अँधेरी रात के नशीले होंठों का
जादूई जाम बना करती है|
-मीना चोपड़ा
मिट्टी को मेरी ओढ़े
अपनी सिलवटों के बीच
खुद ही सिमटता चला गया
और कुछ झलकती
परछाइयों की सरसराहट,
सरकती हुई
इन सिलवटों में
गुम होती चली गयी,
मेरी नज़रों में सोई हुई
सुबह के कुछ आंसू
आँखों के किनारों से छलक पड़े|
देखो तो सही!
पूरब की पेशानी से उगती
मखमली रोशनी के उस टुकड़े ने
हरियाली के हसीन चेहरे पर
यह कैसी शबनम बिखेर दी है?
शाम के वक़्त
जो शाम के प्याले में भरकर
अँधेरी रात के नशीले होंठों का
जादूई जाम बना करती है|
-मीना चोपड़ा
Monday 7 March 2011
सर्द सन्नाटा
सुबह के वक़्त
आँखें बंद कर के देखती हूँ जब
तो यह जिस्म के कोनो से
ससराता हुआ निकल जाता है
सूरज की किरणे चूमती हैं
जब भी इस को
तो खिल उठता है यह
फूल बनकर
और मुस्कुरा देता है
आँखों में मेरी झांक कर
सर्द सन्नाटा
कभी यह जिस्म के कोनो में
ठहर भी जाता है
कभी गीत बन कर
होठों पे रुक भी जाता है
और कभी
गले के सुरों को पकड़
गुनगुनाता है
फिर शाम के
रंगीन अंधेरों में घुल कर
सर्द रातों में गूंजता है अक्सर
सर्द सन्नाटा
मेरे करीब
आ जाता है बहुत
बरसों से मेरा हबीब
सन्नाटा
-मीना चोपड़ा
आँखें बंद कर के देखती हूँ जब
तो यह जिस्म के कोनो से
ससराता हुआ निकल जाता है
सूरज की किरणे चूमती हैं
जब भी इस को
तो खिल उठता है यह
फूल बनकर
और मुस्कुरा देता है
आँखों में मेरी झांक कर
सर्द सन्नाटा
कभी यह जिस्म के कोनो में
ठहर भी जाता है
कभी गीत बन कर
होठों पे रुक भी जाता है
और कभी
गले के सुरों को पकड़
गुनगुनाता है
फिर शाम के
रंगीन अंधेरों में घुल कर
सर्द रातों में गूंजता है अक्सर
सर्द सन्नाटा
मेरे करीब
आ जाता है बहुत
बरसों से मेरा हबीब
सन्नाटा
-मीना चोपड़ा
Wednesday 9 February 2011
A Loving Note - Ishq - इश्क़!
A Loving Note
Draped in the shroud
Of the wet clouds
Hidden and confined
in the dark cold coffins.
Sunshine sulked
throughout the winter.
The blazing skyline
continued to burn till it set
in spring.
Who was that?
kept gazing!
From the edge of my eyelids
till the shroud slit
coffin ripped and flew.
grave dawned in the space.
Was that a broken bit
of a loving tearlet?
A vast ocean
or a missed note.
an ongoing symphony
Streaming in time
- Meena
(Transcreated from my poem below)
इश्क़!
कफन में लिपटा बादलों के
छुपता सूरज
अँधेरी क़ब्र में सो चुका था
न जाने कब से
अपने आप से रूठा सूरज
एक आग के दरिया में
बहते किनारे उफ़क के
न जाने जलते रहे किसके लिए
दिन के ढल जाने तक
कौन था यह?
न जाने कबसे
खड़ा था जो सामने बाहें पसारे
पौ के फटने और भोर के हो जाने तक!
कब्र के फटने और कफ़न के उड़ जाने तक!
ओस की बूँद में बैठा छिपकर साँसे लेता
इश्क का कोई टूटा हुआ
टुकड़ा है शायद
किसी बिसरे हुए गीत का
कोई भटका हुआ
मुखड़ा है शायद!
- मीना
kafan me lipata badlon ke
chhupata suraj
andheri kabr me
so chuka tha
na jaane kab se
apne aap se rootha suraj
ek aag ke dariya me
bahte kinare ufak ke
na jaane jalte rahe
kiske liyedin ke dhal jaane tak
kaun tha wah?
na jaane kab se
khada tha jo samne haath pasare
pau ke phatne
aur bhor ke ho jane tak
kabr ke phatne
aur kafan ke ud jane tak.
Os ki boond me betha
chhipkar sanse leta
ishq ka koi tuta hua
tukada hai shayad
kisi bisare hue geet ka koi
bhataka hua
mukhada hai shayad
-© Meena Chopra (above drawing is by Meena Chopra)
- From upcoming collection 'Subeh ka Suraj ab Mera Nahin Hai'.
Monday 7 February 2011
एक सीप, एक मोती - Ek Seep Ek Moti
बूँदें!
आँखों से टपकें
मिट्टी हो जाएँ।
आग से गुज़रें
आग की नज़र हो जाएँ।
आँखों से टपकें
मिट्टी हो जाएँ।
आग से गुज़रें
आग की नज़र हो जाएँ।
रगों में उतरें
तो लहू हो जाएँ।
या कालचक्र से निकलकर
समय की साँसों पर चलती हुई
मन की सीप में उतरें
और मोती हो जाएँ।
- Meena Chopra
तो लहू हो जाएँ।
या कालचक्र से निकलकर
समय की साँसों पर चलती हुई
मन की सीप में उतरें
और मोती हो जाएँ।
- Meena Chopra
boonden !!
aankhon se tapken
mitti ho jaayen.
aag se guzaren
aag ki nazar ho jaayen.
ragon me utren
to lahoo ho jaayen.
ya kaalchakr se nikal kar
samaya ki sanson par chalti huai
Man ki seep me utren
aur moti ho jaayen
- Meena Chopra
Drawing by Meena Chopra
aankhon se tapken
mitti ho jaayen.
aag se guzaren
aag ki nazar ho jaayen.
ragon me utren
to lahoo ho jaayen.
ya kaalchakr se nikal kar
samaya ki sanson par chalti huai
Man ki seep me utren
aur moti ho jaayen
- Meena Chopra
Drawing by Meena Chopra
सार्थकता
कौन थी वह
जो एक बिन्दु सी
सिमट के सो रही थी पल-पल
मीठी सी नींद को
आंखों में भरकर
कोख की आंच में
मां की सर रखकर।
चाहती थी वह
इस नये संसार में
खुलकर भ्रमण करना
एक नये वजूद को
पहन कर तन पर
ज़िन्दगी की चोखट पर
पहला कदम रखना
और फिर
इन जुड़ते और टूटते पलों
से बनी सीढ़ी पर
लम्हा-लम्हा चढ़ना।
क्या था यही
जन्म को अपने
सार्थक करना?
-मीना चोपड़ा
(मेरी बेटी टिया उर्फ़ ताबीर के लिए)
जो एक बिन्दु सी
सिमट के सो रही थी पल-पल
मीठी सी नींद को
आंखों में भरकर
कोख की आंच में
मां की सर रखकर।
चाहती थी वह
इस नये संसार में
खुलकर भ्रमण करना
एक नये वजूद को
पहन कर तन पर
ज़िन्दगी की चोखट पर
पहला कदम रखना
और फिर
इन जुड़ते और टूटते पलों
से बनी सीढ़ी पर
लम्हा-लम्हा चढ़ना।
क्या था यही
जन्म को अपने
सार्थक करना?
-मीना चोपड़ा
(मेरी बेटी टिया उर्फ़ ताबीर के लिए)
Sunday 6 February 2011
समर्पित - samarpit
मै तुम्हारे संयम को
अपने में धारण कर
निरंतर सुलगती लौ से
जीवनधारा को निष्कलंक करती हुई
इस अविरत जीवन अग्नि में
अनादि तक समर्पित हूँ।
सुबह का सूरज
अब मेरा नहीं है।
mai.n tumhaare sa.nyam ko
apane me.n dhaaraN kar
nirantar sulagatii lau se
jiivan dhaara ko niShkala.nk kartii huii
is avirat jiivan agni me.n
anaadi tak samarpit huu.n
subah kaa suuraj
ab meraa nahii.n hai|
Thursday 1 July 2010
Wednesday 14 April 2010
कुछ निशान वक्त के
झील से झांकते आसमान की गहराई में
बादलों को चूमती पहाड़ों की परछाईयां
और घने पेड़ों के बीच फड़फड़ाते अतीत के चेहरे
झरनो के झरझराते मुख से झरते मधुर गीत संगीत
हवाओं पर बिखरी गेंदे के फूलों की सुनहरी खुशबू
दूर कहीं सजदों में झुकी घंटियों की गूंज
बांसुरी की धुन में लिपट कर चोटियों से
धीमे—धीमे उतरती मीठी धूप।
पानी में डुबकियां लगाती कुछ मचलती किरणे
और उन पर छ्पक—छपक चप्पूओं से सांसे लेती
ज़िन्दगी की चलती नौका
रात की झिलमिलाहटों में तैरती चुप्पियों की लहरें
किनारों से टकराकर लौटती जुगनुओं की वो चमक।
उम्मीदों की ठण्डी सड़क पर हवाओं से बातें करती
किसी राह्गीर के सपनों की तेज़ दौड़ती टापें
पगडंडियों को समेटे कदमो में अपने
पहूंची हैं वहां तक—जहां मंज़िलों के मुकाम
अक्सों में थम गये हैं
झील की गहराई में उतरकर
नींद को थपथपाते हुए
उठती सुबह की अंगड़ाई में रम गये हैं।
*यह कविता मेरे बचपन और
जन्मस्थल नैनीताल से प्रेरित है।Audio of the above poem.
बादलों को चूमती पहाड़ों की परछाईयां
और घने पेड़ों के बीच फड़फड़ाते अतीत के चेहरे
झरनो के झरझराते मुख से झरते मधुर गीत संगीत
हवाओं पर बिखरी गेंदे के फूलों की सुनहरी खुशबू
दूर कहीं सजदों में झुकी घंटियों की गूंज
बांसुरी की धुन में लिपट कर चोटियों से
धीमे—धीमे उतरती मीठी धूप।
पानी में डुबकियां लगाती कुछ मचलती किरणे
और उन पर छ्पक—छपक चप्पूओं से सांसे लेती
ज़िन्दगी की चलती नौका
रात की झिलमिलाहटों में तैरती चुप्पियों की लहरें
किनारों से टकराकर लौटती जुगनुओं की वो चमक।
उम्मीदों की ठण्डी सड़क पर हवाओं से बातें करती
किसी राह्गीर के सपनों की तेज़ दौड़ती टापें
पगडंडियों को समेटे कदमो में अपने
पहूंची हैं वहां तक—जहां मंज़िलों के मुकाम
अक्सों में थम गये हैं
झील की गहराई में उतरकर
नींद को थपथपाते हुए
उठती सुबह की अंगड़ाई में रम गये हैं।
*यह कविता मेरे बचपन और
जन्मस्थल नैनीताल से प्रेरित है।Audio of the above poem.
Tuesday 13 April 2010
बेनाम - benaam
सुबह ने जब अपनी आँखें बंद कर ली थीं
और रात सपनों को साथ लिए बुझने लगी थी
उस वक्त समय की कोख से
एक अनाम से रिश्ते ने जन्म लिया था
जो ज़मीन के गुनाहों की
दहलीज़ को लांघकर
अपने नाम को कायनात की
परछाईं मे ढूँढ़ता हुआ
अँधरों मे खो गया था!
वह जिसका कोई नाम नहीं था
क्या वह मेरा अपना भी नहीं था — ?
subah ne jab apanii aa.nkhe.n ba.nd kar lii thii.n
aur raat sapno.n ko liye bujhane lagii thii
us waqt samay kii koh se
ek anaam rishte ne janm liyaa thaa
jo zamiin ke gunaaho.n kii
dahleez ko laa.nghkar
apne naam ko kaayanaat kii
parChaaii.n me.n Dhu.n.Dhtaa huaa
a.ndhero.n me.n kho gayaa thaa.!
wah jiskaa koi naam nahii.n thaa
kyaa wah meraa apanaa bhii nahii.n thaa - ?
और रात सपनों को साथ लिए बुझने लगी थी
उस वक्त समय की कोख से
एक अनाम से रिश्ते ने जन्म लिया था
जो ज़मीन के गुनाहों की
दहलीज़ को लांघकर
अपने नाम को कायनात की
परछाईं मे ढूँढ़ता हुआ
अँधरों मे खो गया था!
वह जिसका कोई नाम नहीं था
क्या वह मेरा अपना भी नहीं था — ?
subah ne jab apanii aa.nkhe.n ba.nd kar lii thii.n
aur raat sapno.n ko liye bujhane lagii thii
us waqt samay kii koh se
ek anaam rishte ne janm liyaa thaa
jo zamiin ke gunaaho.n kii
dahleez ko laa.nghkar
apne naam ko kaayanaat kii
parChaaii.n me.n Dhu.n.Dhtaa huaa
a.ndhero.n me.n kho gayaa thaa.!
wah jiskaa koi naam nahii.n thaa
kyaa wah meraa apanaa bhii nahii.n thaa - ?
-Meena chopra
Painting by meena
धुआँ - dhuaan
uThta hai
Wah dhuaan—dhuaan
kyuon hai?
miTTIii johathalii semerii lag kar
badal jaatii thii
ek aise KshN mein
Jiska na to koi aadi thaa
na hii ant
Usii miiTTI se uThhata jo aaj
Wah dhuaan kyon hai?
-Meena Chopra
उठता है मिट्टी के
अन्तःकरण से
वह धुआँ धुआँ क्यों है?
मिट्टी जो मेरी
हथेली से लग कर
बदल जाती थी
एक ऐसे क्षण में
जिसका न कोई आदि था
न ही अन्त।
उसी मिट्टी से
उठता है जो आज
वह धुआँ क्यों है?
-मीना चोपडा
Drawing by Meena Chopra
Friday 25 December 2009
बारिश के खिलोने, Vanishing Point
दौड़ती नज़रें जब
गुज़रे समय की सड़क पर
देखतीं हैं वापस मुड़कर
तो दिखाई देते हैं
दूर छोर पर खड़े
कुछ बारिश के खिलोने
और धूप की नर्मी में भीगे पुराने रिश्ते
और कुछ --
वक्त की धुन्ध में मिटते
पाओं के निशान।
-मीना चोपड़ा
Blank eyes see
the vanishing point
on the skyline of the past
I capture the falling toys of rainfall
A soothing touch of the by gone sunshine
wet with the kisses of a rainbow.
Footsteps fade in the misty madness of time.
-Meena Chopra
गुज़रे समय की सड़क पर
देखतीं हैं वापस मुड़कर
तो दिखाई देते हैं
दूर छोर पर खड़े
कुछ बारिश के खिलोने
और धूप की नर्मी में भीगे पुराने रिश्ते
और कुछ --
वक्त की धुन्ध में मिटते
पाओं के निशान।
-मीना चोपड़ा
Blank eyes see
the vanishing point
on the skyline of the past
I capture the falling toys of rainfall
A soothing touch of the by gone sunshine
wet with the kisses of a rainbow.
Footsteps fade in the misty madness of time.
-Meena Chopra
Wednesday 23 December 2009
मुट्ठी भर - muTThii bhar
Drawing by Meena |
कुछ पंख यादों के
बटोर कर बाँध लिये थे
रात की चादर में मैंने।
पोटली बनाकर रख दी थी
घर के किसी कोने में बहुत पहले।
आज जब भूल से तुम
ख़्वाब में आए
तो याद आ गई!
बैठी हूँ खोजने तो
कुछ मिलता ही नहीं!
टटोलती हूँ, ढूँढ़ती हूँ,
नज़रें पसार कर
पोटली तो क्या
घर के कोने भी
गुम हो चुके हैं सारे!
इंतज़ार है तो बस एक ही
कि वह रात एक बार फिर लौटे
बूँद-बूँद चेहरे से तेरे गुज़रे,
भर के हाथों में उसे सहलाऊँ मैं
होठों से चूमूँ
पोटली में रख दूँ फिर से —
इस बार सम्हाल कर
अपनी पलकों के तले।
-मीना चोपड़ा
muTThi bhar waqt
kuCh pa.nkh yaado.n ke
bator kar baa.ndh liye the
raat kii chaadar mei.n maine।
poTalii banaakar rakh dii thii
ghar ke kisii kone mei.n bahut pahle.
aaj jab bhuul se tum
Khawab mei.n aaye
to yaad aa gaii!
baiThii huu.n khojane to
kuuCh milta hii nahii.n
TaTolatii Huu.n,
Dhuu.n.Dhatii huu.n
nazare.n pasaar kar
poTalii to kyaa
ghar ke kone bhii
gum ho chuke hai.n saare!
intzaar hai to bas ek hii
ki wah raat ek baar phir se lauTe
buu.nd-buu.nd chehare se tere guzare,
bhar ke haatho.n mei.n use sahalaauu.n mai.n
hoTho.n se chuumuu.n
poTalii mei.n rakh duu.n phir se -
is baar samhaal kar
apanii palko.n ke tale
-Meena Chopra
Tuesday 22 December 2009
वक़्त - waqt
एक पिघलता सूरज देखा है मैंने
तुम्हारी आँखों के किनारे पर।
कभी देखा है किनारों से पिघलता रंग
गिरकर दरिया में बहता हुआ
और कभी,
दरिया को इन्हीं रंगों में बहते देखा है
देखा है जो कुछ भी
बस बहता ही देखा है।
-Meena Chopra
ek pighaltaa suuraj dekhaa hai maine
tumhaarii aankho.n ke kinaare par!
kabhii dekhaa hai
kinaro.n se pighaltaa rang
gir– gir ke dariyaa mei.n bahataa hua
aur kabhii
dariyaa ko inhii rango.n mei.n bahte dekhaa hai
dekhaa hai jo kuCh bhii
bas bahataa hii dekhaa hai!
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